30 सितंबर 2016

इस बार नौ नहीं दस दिन की है नवरात्रि, 16 साल बाद बन रहा है ऐसा संयोग

इस बार की नवरात्रि 9 के बजाए 10 दिन का होगा। इस प्रकार का संयोग 16 साल बाद बन रहा है। नवरात्रि के 10 दिन का होने की वजह प्रतिपदा का दो दिन होना है। 10 वें दिन मां दुर्गाओं की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाएगा।
हर बार की तरह इस बार का भी ये नवरात्र काफी उम्मीदें और आशाएं लेकर आया है लेकिन इस बार का नवरात्र के एक खास बात है और वो यह कि यह हर जातक के लिए बेहद शुभ है। इसकी पीछे कारण ये है कि इस बार का नवरात्र पूरे दस दिन का है, ऐसा संयोग पूरे 16 साल बाद बन रहा है। इन दिनों में श्रद्धालु पूजा-अर्चना, साधना के साथ पुण्यलाभ ले सकते हैं।
नवरात्र 1 अक्टूबर से लेकर 10 अक्टूबर तक रहेगा, 11 वां दिन विजयदशमी यानी सिद्दिदात्री का होगा। नवरात्र के दिनों में भक्तगण उपवास रखते हैं मां दुर्गासप्तशती का पाठ करते हैं और मां को अलग-अलग तरह के भोग लगाते हैं। जो जातक पूरे नौ दिन व्रत नहीं रह सकते है, वह अष्टमी या नवमी के दिन उपवास रखकर कन्या पूजन करके मां भगवती को प्रसन्न कर सकते हैं।
नवरात्र के दिनों में किस दिन क्या चढ़ाये मां भगवती को भोग
  • प्रतिपदा के दिन : मां को घी का भोग लगाएं, रोगमुक्त होंगे।
  • द्वितीया के दिन: शक्कर का भोग लगाएं, दीर्घायु होंगे।
  • तृतीया के दिन: दूध चढ़ाएं, सारे कष्ट दूर होंगे।
  • चतुर्थी के दिन: मालपुए का भोग, पारिवारिक सुख मिलेगा।
  • पंचमी के दिन: केले और शहद का भोग लगाएं।
  • षष्ठी तिथि के दिन: सफेद पेड़े का भोग लगाएं।
  • सप्तमी के दिन: गुड़ का भोग लगाएं, गरीबी भाग जायेगी।
  • अष्टमी के दिन: नारियल का भोग लगाएं, सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।
  • नवमी के दिन: अनाजों का भोग लगाएं, संतान की प्राप्ति।

29 सितंबर 2016

शारदीय नवरात्र 2016 : जानिए घट-स्थापना का मुहूर्त व नौ दुर्गा के स्वरूप

मिर्जापुर। आश्विनशुक्ल पक्ष में आने वाला मां आदिशक्ति के आराध्य का पर्व नवरात्र में इस बार एक दिन की वृद्धि हुई है। शरदीय नवरात्रि दस दिनों तक हैं और 11वें दिन विजयदशमी का पर्व मनाया जाएगा। शहर के ज्योतिषविद पं.शिवदत्त शुक्ला के मुताबिक तिथियों के कम होने बढ़ने के कारण नवरात्रि में वृद्धि और कम होना है। यह संयोग सोलह साल बाद आया है, जो शुभ कार्यों के लिए उत्तम व सर्वश्रेष्ठ है। नवरात्र के साथ ही दो शुभ योग हस्त नक्षत्र और ब्रह्म योग भी लग रहा है, जो बहुत ही फलदायी है।
पांचांग के अनुसार नवरात्रि की प्रथम तिथि दो दिन यानि पहला नवरात्र एक और दो अक्टूबर को होगा। इस तरह से दस दिनों तक मां दुर्गा पूजा की जाएगी। कुछ लोग नवरत्रि की पूजा अष्टमी और कुछ नवमी तक करते हैं। मां भगवती के नौ रूपों की पूजा से शीघ्र फल मिलता है।
- कलश स्थापना मुहूर्त : नवरात्र के प्रथम दिन कलश स्थापना कर व्रत का संकल्प लेना चाहिए। 01 अक्टूबर को सुबह 06 बजकर 20 मिनट से लेकर 07 बजकर 30 तक का समय कलश स्थापना के लिए विशेष शुभ है। नवरात्र व्रत की शुरुआत प्रतिपदा तिथि को कलश स्थापना से की जाती है।
- कलश स्थापना विधि : धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। कलश के मुख में विष्णुजी का निवास, कंठ में रुद्र तथा मूल में ब्रह्मा स्थित हैं और कलश के मध्य में दैवीय मातृशक्तियां निवास करती हैं।
जानिए मां दुर्गा के नौ स्वरूपों को

- प्रथम स्वरूप शैलपुत्री : मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्रीके रूप में जानी जाती हैं। पर्वतराजहिमालय के यहां जन्म लेने से भगवती को शैलपुत्रीकहा गया। भगवती का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। इस स्वरूप का पूजन आज के दिन किया जाएगा। किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें। कलश पर मूर्ति स्थापित करें। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनाएं।
- द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी : मां दुर्गा अपने द्वितीय स्वरूप में ब्रह्मचारिणी के रूप में जानी जाती हैं। ब्रह्म का अर्थ है, तपस्या, तप का आचरण करने वाली भगवती, जिस कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया, वेदस्तत्वंतपो ब्रह्म, वेद, तत्व और ताप [ब्रह्म] अर्थ है ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है, इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है।
- तृतीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी : मां दुर्गा अपने तृतीय स्वरूप में चन्द्रघंटाके नाम से जानी जाती हैं। नवरात्र के तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। इनका रूप परम शांतिदायकऔर कल्याणकारी है, इनके मस्तक में घंटे के आकार का अर्धचन्द्र है इसी कारण से इन्हें चन्द्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला हैं, इनके दस हाथ हैं, इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र, बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है, इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उदधृत रहने की होती है इनके घंटे सी भयानक चंडध्वनिसे अत्याचारी दानव, दैत्य, राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं।
- चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा : मां दुर्गा अपने चतुर्थ स्वरूप में कूष्माण्डा के नाम से जानी जाती है। अपनी मंद हंसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार परिव्याप्त था तब इन्हीं देवी ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। अत: यही सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं। इनके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं। इनकी आठ भुजाएं हैं। अत: ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा कुम्हडे को कहते हैं। बलियों में कुम्हडे की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी यह कूष्माण्डा कही जाती हैं।
- पांचवां स्वरूप स्कन्दमाता : मां दुर्गा अपने पांचवें स्वरूप में स्कन्दमाता के नाम से जानी जाती है। स्कन्द कुमार अर्थात् कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाताकहते हैं। इनका वाहन मयूर है। मंगलवार के दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थितहोता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्दजीबाल रूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्द मातुस्वरूपणीदेवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द्रको गोद में पकडे हुए हैं और दाहिने तरफ की नीचे वाली भुजा वरमुद्रामें तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर उठी हुई है, इसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णत:शुभ है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासनादेवी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।
-  छठा स्वरूप कात्यायनी : भगवती दुर्गा के छठें रूप का नाम कात्यायनी है। महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन उन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था। इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य एवं दिव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला, और भास्वर है। इनकी चार भुजाएं हैं। माता जी का दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रामें है तथा नीचे वाला वरमुद्रामें, बाई तरफ के ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
- सातवां स्वरूप कालरात्रि : मां दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हे। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है, सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र है, ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश्यगोल है, इनसे विद्युत के समान चमकीलीकिरणें नि:सृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वांसप्रश्वांससे अग्नि की भंयकरज्वालाएं निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ है। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रासे सभी को वर प्रदान करती है। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रामें है बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे हाथ में खड्ग है। मां का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली है। इसी कारण इनका नाम शुभकरीभी है अत:इनसे किसी प्रकार भक्तों को भयभीत होने अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
- आठवां स्वरूप महागौरी : मां दुर्गा अपने आठवें स्वरूप में महागौरीके नाम से जानी जाती है। भगवती महागौरी वृषभ के पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्र का मुकुट है। मणिकान्तिमणि के समान कान्ति वाली अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण किए हुए हैं, जिनके कानों में रत्नजडित कुण्डल झिलमिलाते हैं, ऐसी भगवती महागौरी हैं।
- नौवां स्वरूप सिद्धिदात्री : मां दुर्गा अपने नौवें स्वरूप में सिद्धिदात्रीके नाम से जानी जाती है। आदि शक्ति भगवती का नवम् रूप सिद्धिदात्रीहै, जिनकी चार भुजाएं हैं। उनका आसन कमल है। दाहिने और नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा, बाई ओर से नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है, यह भगवती का स्वरूप है, इस स्वरूप की ही हम आराधना करते हैं।

18 सितंबर 2016

विश्वकर्मा की पूजा का यह मतलब नहीं है कि आप उनकी तस्वीर पर फूल और माला लटकाकर निश्चिंत हो जाएं

कल देव शिल्पी विश्वकर्मा का जन्मदिन था। इनके जन्मदिन को देश भर में विश्वकर्मा जयंती अथवा विश्वकर्मा पूजा के नाम से मनाया जाता है। देवशिल्पी विश्वकर्मा ही देवताओं के लिए महल, अस्त्र-शस्त्र, आभूषण आदि बनाने का काम करते हैं। इसलिए यह देवताओं के भी आदरणीय हैं।
इन्द्र के सबसे शक्तिशाली अस्त्र वज्र का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया है। शास्त्रों के अनुसार भगवान विश्वकर्मा ने सृष्टि की रचना में ब्रह्मा की सहायता की और संसार की रूप रेखा का नक्शा तैयार किया। मान्यता है कि विश्वकर्मा ने उड़ीसा में स्थित भगवान जगन्नाथ सहित, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्ति का निर्माण भी विश्वकर्मा के हाथों ही हुआ माना जाता था।
विश्वकर्मा ने किया लंका का निर्माण :
रामायण में वर्णन मिलता है कि रावण की लंका सोने की बनी थी। ऐसी कथा है कि भगवान शिव ने पार्वती से विवाह के बाद विश्वकर्मा से सोने की लंका का निर्माण करवाया था। शिव जी ने रावण को पंडित के तौर पर गृह पूजन के लिए बुलवाया।
पूजा के पश्चात रावण ने भगवान शिव से दक्षिणा में सोने की लंका ही मांग ली। सोने की लंका को जब हनुमान जी ने सीता की खोज के दौरान जला दिया तब रावण ने पुनः विश्वकर्मा को बुलवाकर उनसे सोने की लंका का पुनर्निमाण करवाया।
रामसेतु का निर्माण :
वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम के आदेश पर समुद्र पर पत्थरों से पुल का निर्माण किया गया था। रामसेतु का निर्माण मूल रूप से नल नाम के वानर ने किया था। नल शिल्पकला (इंजीनियरिंग) जानता था क्योंकि वह देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा का पुत्र था। अपनी इसी कला से उसने समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था।                                                                                                                                                                                                                                
भगवान महादेव के रथ का निर्माण :
महाभारत के अनुसार तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के नगरों का विध्वंस करने के लिए भगवान महादेव जिस रथ पर सवार हुए थे, उस रथ का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था। वह रथ सोने का था। उसके दाहिने चक्र में सूर्य और बाएं चक्र में चंद्रमा विराजमान थे। दाहिने चक्र में बारह आरे तथा बाएं चक्र में 16 आरे लगे थे।                                                                                                                                                                                                                                                                   
श्रीकृष्ण की द्वारिका नगरी का निर्माण :

श्रीमद्भागवत के अनुसार द्वारिका नगरी का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया था। उस नगरी में विश्वकर्मा का विज्ञान (वास्तु शास्त्र व शिल्पकला) की निपुणता प्रकट होती थी। द्वारिका नगरी की लंबाई-चौड़ाई 48 कोस थी। उसमें वास्तु शास्त्र के अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियों का निर्माण किया गया था।                                                                                                                                                                                                                                                             
पुष्पक विमान का निर्माण :
सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा ही निर्मित हैं। 
इसके अलावा कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।
आज के युग में विश्वकर्मा पूजा :
देव शिल्पी होने के कारण भगवान विश्वकर्मा मशीनरी एवं शिल्प उद्योग से जुड़े लोगों के लिए प्रमुख देवता हैं। वर्तमान में हर व्यक्ति सुबह से शाम तक किसी न किसी मशीनरी का इस्तेमाल जरूर करता है जैसे कंप्यूटर, मोटर साईकल, कार, पानी का मोटर, बिजली के उपकरण आदि। भगवान विश्वकर्मा इन सभी के देवता माने जाते हैं।
इसलिए वर्तमान युग में विश्वकर्मा का महत्व दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। यही वजह है कि पहले सिर्फ शिल्पकार ही इनकी पूजा किया करते थे लेकिन अब घर-घर में इनकी पूजा होने लगी है।
ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा की पूजा करने से मशनरी लंबे समय तक साथ निभाती हैं एवं जरूरत के समय धोखा नहीं देती है। विश्वकर्मा की पूजा का एक अच्छा तरीका यह है कि आप जिन मशीनरी का उपयोग करते हैं उनकी आज साफ-सफाई करें।
उनकी देखरेख में जो भी कमी है उसे जांच करके उसे दुरूस्त कराएं और खुद से वादा करें कि आप अपनी मशीनरी का पूरा ध्यान रखेंगे। विश्वकर्मा की पूजा का यह मतलब नहीं है कि आप उनकी तस्वीर पर फूल और माला लटकाकर निश्चिंत हो जाएं।

14 अप्रैल 2013

नवरात्र में देवी की पूजा से


ग्रह और राशियों के प्रतिकूल प्रभाव होते है शांत

वैदिक ज्योतिष की गणना के अनुसार प्रतिवर्ष चार नवरात्र होते हैं। इनमें चैत्र शुक्ल के वासंतिक नवरात्र, आश्विन शुक्ल पक्ष के शारदीय नवरात्र तथा आषाढ़ और माघ शुक्ल के नवरात्र गुप्त नवरात्र कहलाते हैं। ये चारों नवरात्र साधकों के लिए अमोघ फलदायी होते हैं।
वासंतिक नवरात्र में विष्णु पूजा की प्रधानता रहती है क्योंकि रामनवमी के दिन भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था। अत: इन नवरात्र में रामचरित मानस, रामायण के अखंड और नवान्ह पारायण पाठ करने का विधान है। इन दिनों नवदुर्गा के रूप में देवी की नौ शक्तियों की पूजा की जाती है।
जन्म कुंडली में कोई भी प्रतिकूल ग्रह नीच या शत्रुक्षेत्रीय प्रभाव में होकर अनिष्टकारक हों, उनकी दशा-अंतर्दशा में अनिष्ट प्रभाव पड़ रहा हो या अनिष्ट की आशंका हो तो नवरात्र में देवी की पूजा-आराधना से सभी नौ ग्रह और बारह राशियों के प्रतिकूल प्रभाव शांत होकर घर में सुख, समृद्धि तथा शांति की प्राप्ति होती है।
दुर्गा  पाठ  में  रखें  सावधानी
सप्तशती की पुस्तक को हाथ में लेकर पाठ करना वर्जित है। अत: पुस्तक को किसी आधार पर रखकर ही पाठ करना चाहिए। मानसिक पाठ नहीं करें वरन् पाठ मध्यम स्वर से स्पष्ट उच्चारण सहित बोल कर करना चाहिए। अध्यायों के अंत में आने वाले इति’, ‘अध्याय:एवं वध:शब्दों का प्रयोग वर्जित है। दुर्गा पाठ को देवी के नवार्ण मंत्र ऊँ ऐं ह्नी क्लीं चामुण्डायै विच्चेसे संपुटित करें यानी पाठ के ठीक पहले और तुरन्त बाद इस मंत्र के 108 बार जप करें। नौ अक्षरों के उक्त नवार्ण मंत्र के जाप में अन्य मंत्रों की तरह ऊँ नहीं लगता है। अत: इसे प्रणव ऊँ रहित ही जपना चाहिए।
घट स्थापना और जवारे
नवरात्र के प्रथम दिन शुभ मुहूर्त में प्रात: 6.10 से 10.10 बजे तक घट स्थापना करें। पीली मिटटी में जौ के जवारे बोएं। मिट्टी के घड़े में जल भरें उसमें रोली, चावल और समुद्र फेन (पंसारी के यहां उपलब्ध है) डाल कर सकोरे से ढककर नारियल रखें, आम-अशोक के लहरे (पत्ते) लगाएं, मोली बांधें, फूल माला चढ़ाएं तथा घी, रोली, हल्दी से स्वास्तिक बनाकर इसे पूजा स्थल के ईशान कोण में स्थापित कर दें। वरुण रूपी कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है। अत: समस्त देवी-देवताओं का ध्यान कर कलश में उनका आह्वान करें।
ऐसे करें सप्तशती के पाठ
पूजा स्थल को शुद्ध-साफ करके घी का दीपक जलाएं। सर्व प्रथम गणपति अम्बिका का षोडषोपचार पूजन, कलश पूजा, पंच लोकपाल, दस दिकपाल, गौर्यादि षोडश मातृका, नवग्रह, अखंडदीप पूजन आदि प्रतिदिन करें। इसके पश्चात दुर्गा सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ करें। 
सप्तशती के विधिवत पाठ में शापोद्धार सहित षड़ांग विधि
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य इन छह अंगों सहित देवी का पाठ करना चाहिए। पाठ समाप्ति के तुरन्त बाद पुन: 108 बार नवार्ण मंत्र के जप करके पाठ को संपुटित कर लें। पुन: पूर्ववत शापोद्धार, उत्कीलन और मृत संजीवनी विद्या के मंत्र जप करें।
इसके पश्चात् ऋवेदोक्त देवीसूक्त, प्राधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य, मूर्ति रहस्य, सिद्धिकुंजिकास्तोत्र के पाठ करें। क्षमा प्रार्थना, भैरवनामावली के पाठ, आरती तथा मंत्र पुष्पांजलि के साथ पाठ का समापन करें। विधिवत पाठ न कर सकने वाले व्यक्ति नवरात्र में व्रत रखकर हवन कर सकते हैं। इससे भी लाभ मिलता है।
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मालाएं एवं उनकी उपयोगिता


मालाएँ आमतौर से शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, पर कर्इ तरह की मालाएँ ऐसी भी होती है जो हमारे ग्रहों को अनुकूल कर हमें परेशानियों से बचाती हैं तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक होती है। साथ ही यह तंत्र मंत्र सिद्धि के लिए भी बहुत उपयोगी होती है। यहां हम विभिन्न तरह की मालाओं की उपयोगिता का संक्षिप्त विवरण दे रहें हैं।
स्फटिक की माला- देवी जाप के लिए स्फटिक माला से मंत्र शीघ्र सिद्ध हो जाता है। आर्थिक स्थिति में सुधार आती है। उच्च रक्तचाप के रोगियों को क्रोध शान्ति के लिए यह माला अचूक है।
सफेद चन्दन की माला- इसका उपयोग शान्ति पुष्टि कर्मों श्री राम, विष्णु अन्य देवता की उपासना में होता है। इसके धारण करने से शरीर में ताजगी का संचार होता है।
तुलसी की माला- विष्णु प्रिय तुलसी की माला विष्णु, राम, कृष्ण जी की उपासना हेतु सर्वोत्तम है। शरीर आत्मा की शुद्धि के लिए धारण करना उत्तम माना जाता है।
मूंगे की माला- मंगल ग्रह की शान्ति के लिए धारण करना उपयुक्त है हनुमान जी की साधना के लिए सर्वोत्तम है।
हकीक की माला- भाग्य वृद्धि सौभाग्य प्राप्ति के लिए इसका विशेष महत्व है। इसमें भूत-प्रेत बाधा दुर्भाग्य और कर्इ बुराइयों को नाश करने की विशेष शाक्ति होती है। मुसीबत आने पर यह टुट जाता है।
स्फटिक रुद्राक्ष माला- रुद्राक्ष स्फटिक माला शिवशक्ति का प्रतीक है। रुद्राक्ष निम्न रक्तचाप को स्फटिक उच्च रक्तचाप को नियंत्रित कर समन्वय बनाए रखता है। इस माला पर शिव शक्ति दोनों के जाप किये जाते हैं।
रुद्राक्ष सोने के दानों की माला- रुद्राक्ष के साथ सोने के दाने रुद्राक्ष की शक्ति में वृद्धि करते हैं। सोना सबसे शुद्ध धातु है। धारक को रुद्राक्ष के गुणों के साथ-साथ शान्ति समृद्धि की प्राप्ति होती है।
मोती की माला- मोती की माला भाग्य बढ़ाती है, पुत्र प्राप्ति के लिए उत्तम है। मानसिक शान्ति, कर्क राशि, लग्न व पारिवारिक दु: में लाभदायक है।
इसके अलावा टाइगर, लाजव्रत, गारनेट, फिरोजा, मरगज आदि की माला अपने राशि ग्रह के अनुसार आपको कौन सा माला ठीक रहेगा इसकी सलाह लेकर धारण कर सकते हैं।